छाती
ठोककर अपने-अपने मज़हब का ढोल पीटते हो...समझते भी हो कि मज़हब क्या
है...ज़रा-ज़रा सी बात पर लड़ने को तैयार हो जाते हो..जानते भी हो कि इसका
अंजाम कितना भयानक होगा...बस, कोई बोल भर दे..ये लो जी..किसे काटना है
बताओ...तलवार से ना सही..ज़ुबान कौन सी कम है...उसके ज़हर बुझे तीर तो सीधा
दिल के आर-पार हो जाते हैं...इतनी नफ़रत धधक रही है सीने में कि खुद को
कुछ मिले या ना मिले...दूसरे को कुछ नहीं मिलना चाहिए...अपने
मज़हब से काम की एक बात नहीं सीखना..लेकिन दूसरों के मज़हब पर कीचड़
उछालना मत भूलना..सारी ज़िंदगी चाहें किल्लत और धक्के खाने में निकल जाए
लेकिन धर्म के नाम पर अपने पैर इतने पसारो कि दूसरे का आंचल मैला हो
जाए...अगर ऐसा नहीं करोगे तो राजनीति की रोटियां कैसे सिकेंगी...फिर चाहें
अपने घर में रोटी हो या ना हो...वैसे भी मां के आंसुओं और बिलखते बच्चों की
परवाह किसे है...पहले एक-दूसरे का खून तो पी लें..तो चलो, क्यों ना इस
ज़िंदगी को धर्म की झूठी शान पर कुर्बान कर दें...धरती को तो स्वर्ग बना
नहीं सके...जन्नत को ज़रूर नर्क बना देंगे.. Anshupriya Prasad
अपने आप से बात करते समय, बेहद सावधानी बरतें..क्योंकि हमारा आगे आने वाला वक्त काफी हद तक, इस बात पर निर्भर करता है कि हम क्या सोचते हैं..या फिर खुद से कैसी बातें करते हैं..हमारे साथ कोई भी बात, होती तो एक बार है, लेकिन हम लगातार उसी के बारे में सोचते रहते हैं..और मन ही मन, उन्ही पलों को, हर समय जीते रहते हैं जिनसे हमें चोट पहुंचती है..बार-बार ऐसी बातों को याद करने से, हमारा दिल इतना छलनी हो जाता है कि सारा आत्मविश्वास, रिस-रिस कर बह जाता है..फिर हमें कोई भी काम करने में डर लगता है..भरोसा ही नहीं होता कि हम कुछ, कर भी पाएंगे या नहीं..तरह-तरह की आशंकाएं सताने लगती हैं..इन सबका नतीजा ये होता है कि अगर कोई अनहोनी, नहीं भी होने वाली होती है, तो वो होने लगती है..गलत बातें सोच-सोच कर, हम अपने ही दुर्भाग्य पर मोहर लगा देते हैं..इसलिए वही सोचो, जो आप भविष्य में होते हुए देखना चाहते हो..वैसे भी न्यौता, सुख को दिया जाता है..दुख को नहीं..तो फिर तैयारी भी खुशियों की ही करनी चाहिए..
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