ऐसा क्यों होता है कि सारी परेशानियां घूम फिर के हमारे ही गले पड़ जाती
हैं...किसी और की गलती के लिए भी हमें ही ज़िम्मेदार ठहराया जाता है...जिन
बातों पर दूसरों का बाल भी बांका नहीं होता उसी बात के लिए हमारी ज़िंदगी
नर्क बना दी जाती है...जब भी हमारे साथ कुछ बुरा होता है तो हमें लगता है
कि मैं ही क्यों..बाकी लोग तो इतने सुखी हैं..फिर सारे दुख मुझे ही क्यों
मिल रहे हैं...ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम लगातार दुख और परेशानी को अपनी
तरफ खींचते रहते हैं...हम जैसा सोचते हैं..और करते हैं...उसी
तरह की चीजें हमारी तरफ आकर्षित होती हैं...अगर हम अच्छा (पॉज़िटिव)
सोचेंगे तो हमारे आसपास का माहौल बेहतर होगा..और हमारे लिए लोगों का रवैया
बदलने लगेगा..लेकिन अगर हम बुरा (निगेटिव) सोचेंगे तो गलत लोगों से घिर
जाएंगे...और निगेटिविटी चाहें वो अपने लिए हो या दूसरे के लिए..उससे सिर्फ
दुख मिल सकता है, सुख नहीं...इसलिए खुश रहो, अच्छा सोचो और हौसला बनाए
रखो..हम जितनी ईमानदारी से इसे अपनी ज़िंदगी में उतारेंगे..रिज़ल्ट भी उतनी
ही जल्दी मिलेगा...वैसे किसी भी उम्र में ज़िंदगी सुधर जाए तो क्या बुरा
है..कम से कम उसे सुधारने की शुरुआत तो हो... Anshupriya Prasad
मोहब्बत करने वाले रोज़ थोड़ा-थोड़ा मरा करते हैं..क्योंकि किसी और को अपना हिस्सा बनाने के लिए खुद को मिटाना पड़ता है..तभी दूसरे के लिए जगह बनती है..अपना वजूद जितना मिटेगा, उतना ही प्यार बढ़ता चला जाएगा..ज़रूरी नहीं है कि जितनी प्रीत आप कर सकते हो, उतनी वापस भी मिल जाए..क्योंकि प्रेम तो केवल वही निभा सकते हैं जिन्हें दर्द के नूर में तप-तप कर संवरना आता है..प्रेमी अगर मिल जाएं तो 'राधा-कृष्ण'..और ना मिल पाएं तो 'मीरा-कृष्ण'..
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