एक गुमनाम परी कुछ सालों पहले रामलीला मैदान से खरीदा था मुकुट, धनुष, परी की छड़ी..परी बनकर भी गुमनाम हूं मैं...मेरी डायरी एक बिखरा पन्ना आपकी नज़र कर रही हूं... ये जो Facebook ID है न? ये कोई पहचान नहीं मेरी, बस एक मकां है, फ़क़त, गुमनामियों का एक मकाँ... जिसकी खिड़की पे बैठ कर मैं, लिखती रहती हूँ तुम्हारे नाम कई कई खत ... और छोड़ देती हूँ ...इस अजनबी मोहल्ले में ... कि कभी आओ अगर इस गली, तो पढ़ना इन खतों को... मेरी आँखों की तरह, इनमें भी अपना ही अक्स पाओगे... मेरे पास, तुम्हारा पता तो नहीं... मगर.... अपने निशां ज़रूर बचा रखे हैं... मैंने तुम्हारे लिए...